क्रांति १८५७
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झांसी की रानी का ध्वज

स्वाधीन भारत की प्रथम क्रांति की 150वीं वर्षगांठ पर शहीदों को नमन
वर्तमान भारत का ध्वज
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क्रांति १८५७
 

प्रस्तावना

  रुपरेखा
  1857 से पहले का इतिहास
  मुख्य कारण
  शुरुआत
  क्रान्ति का फैलाव
  कुछ महत्तवपूर्ण तथ्य
  ब्रिटिश आफ़िसर्स
  अंग्रेजो के अत्याचार
  प्रमुख तारीखें
  असफलता के कारण
  परिणाम
  कविता, नारे, दोहे
  संदर्भ

विश्लेषण व अनुसंधान

  फ़ूट डालों और राज करो
  साम,दाम, दण्ड भेद की नीति
  ब्रिटिश समर्थक भारतीय
  षडयंत्र, रणनीतिया व योजनाए
  इतिहासकारो व विद्वानों की राय में क्रांति 1857
  1857 से संबंधित साहित्य, उपन्यास नाटक इत्यादि
  अंग्रेजों के बनाए गए अनुपयोगी कानून
  अंग्रेजों द्वारा लूट कर ले जायी गयी वस्तुए

1857 के बाद

  1857-1947 के संघर्ष की गाथा
  1857-1947 तक के क्रांतिकारी
  आजादी के दिन समाचार पत्रों में स्वतंत्रता की खबरे
  1947-2007 में ब्रिटेन के साथ संबंध

वर्तमान परिपेक्ष्य

  भारत व ब्रिटेन के संबंध
  वर्तमान में ब्रिटेन के गुलाम देश
  कॉमन वेल्थ का वर्तमान में औचित्य
  2007-2057 की चुनौतियाँ
  क्रान्ति व वर्तमान भारत

वृहत्तर भारत का नक्शा

 
 
चित्र प्रर्दशनी
 
 

क्रांतिकारियों की सूची

  नाना साहब पेशवा
  तात्या टोपे
  बाबु कुंवर सिंह
  बहादुर शाह जफ़र
  मंगल पाण्डेय
  मौंलवी अहमद शाह
  अजीमुल्ला खाँ
  फ़कीरचंद जैन
  लाला हुकुमचंद जैन
  अमरचंद बांठिया
 

झवेर भाई पटेल

 

जोधा माणेक

 

बापू माणेक

 

भोजा माणेक

 

रेवा माणेक

 

रणमल माणेक

 

दीपा माणेक

 

सैयद अली

 

ठाकुर सूरजमल

 

गरबड़दास

 

मगनदास वाणिया

 

जेठा माधव

 

बापू गायकवाड़

 

निहालचंद जवेरी

 

तोरदान खान

 

उदमीराम

 

ठाकुर किशोर सिंह, रघुनाथ राव

 

तिलका माँझी

 

देवी सिंह, सरजू प्रसाद सिंह

 

नरपति सिंह

 

वीर नारायण सिंह

 

नाहर सिंह

 

सआदत खाँ

 

सुरेन्द्र साय

 

जगत सेठ राम जी दास गुड वाला

 

ठाकुर रणमतसिंह

 

रंगो बापू जी

 

भास्कर राव बाबा साहब नरगंुदकर

 

वासुदेव बलवंत फड़कें

 

मौलवी अहमदुल्ला

 

लाल जयदयाल

 

ठाकुर कुशाल सिंह

 

लाला मटोलचन्द

 

रिचर्ड विलियम्स

 

पीर अली

 

वलीदाद खाँ

 

वारिस अली

 

अमर सिंह

 

बंसुरिया बाबा

 

गौड़ राजा शंकर शाह

 

जौधारा सिंह

 

राणा बेनी माधोसिंह

 

राजस्थान के क्रांतिकारी

 

वृन्दावन तिवारी

 

महाराणा बख्तावर सिंह

 

ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव

क्रांतिकारी महिलाए

  1857 की कुछ भूली बिसरी क्रांतिकारी वीरांगनाएँ
  रानी लक्ष्मी बाई
 

बेगम ह्जरत महल

 

रानी द्रोपदी बाई

 

रानी ईश्‍वरी कुमारी

 

चौहान रानी

 

अवंतिका बाई लोधो

 

महारानी तपस्विनी

 

ऊदा देवी

 

बालिका मैना

 

वीरांगना झलकारी देवी

 

तोपख़ाने की कमांडर जूही

 

पराक्रमी मुन्दर

 

रानी हिंडोरिया

 

रानी तेजबाई

 

जैतपुर की रानी

 

नर्तकी अजीजन

 

ईश्वरी पाण्डेय

 
 

1857 के मुख्य क्रांतिकारी

 

पुस्तक : 1857 के क्रांतिकारी
भाग : 1 पेज न. 40
लेखक : डॉ. शांति लाल नागोरी, डॉ. प्रणव देव
प्रकाशक : आर बी एस ए पब्लिशर्स

"सन् 1857 का विप्लव भारत-भूमि पर ब्रितानी राज्य के इतिहास की सबसे अधिक रोमांचकारी और महत्वपूर्ण घटना थी। " यह एक ऐसी भयानक घटना थी जिसकी प्रचण्ड लपटों में एक बार तो ब्रितानियों का अस्तित्व जल कर मिटने वाला सा प्रतीत होने लगा था। इस रोमांचकारी घटना के मूल कारण संक्षिप्त रूप से इस प्रकार आँके जाते हैं। ये कारण राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सैनिक शीर्षकों में बाँटे जा सकते हैं। विदेशी इतिहासकार इसके वास्तविक कारण सिर्फ़ सैनिक ही मानते हैं। 1857 का विद्रोह कोई आकस्मिक घटना नहीं थी, अपितु यह अनेक कारणों का परिणाम थी, जो इस प्रकार थे-

राजनीतिक कारण

1. डलहौज़ी की साम्राज्यवादी नीति : लार्ड डलहौजी (1848-56 ई.) ने भारत में अपना साम्राज्य विस्तार करने के लिए विभिन्न अन्यायपूर्ण तरीके अपनाए। अतः देशी रियासतों एवं नवाबों में कंपनी के विरूद्ध गहरा असंतोष फैला। डलहौज़ी ने पंजाब, पीगू एवं सिक्किम के प्रति युद्ध कि नीति अपना कर उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। उसने लैप्स के सिद्धांत को अपनाया। इस सिद्धांत का तात्पर्य है, " जो देशी रियासतें कंपनी के अधीन हैं, उनको अपने उत्तराधिकारियों के बारे में ब्रिटिश सरकार के मान्यता व स्वीकृति लेनी होगी। यदि रियासतें ऐसा नहीं करेंगी, तो ब्रिटिश सरकार उत्तराधिकारियों को अपनी रियासतों का वैद्य शासक नहीं मानेंगी। " इस नीति के आधार पर डलहौजी ने निःसन्तान राजाओं के गोन लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया तथा इस आधार पर उसने सतारा, जैतपुर, सम्भलपुर, बाघट, उदयपुर, झाँसी, नागपुर आदि रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। उसने अवध के नवाब पर कुशासन का आरोप लगाते हुए 1856 ई. में अवध का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिया। नेलसन ने इस संबंध में लिखा है कि " अवध को ब्रि्रटिश राज्य में सम्मिलित करने तथा वहाँ पर नई शासन पद्धति के प्रारंभ किए जाने कसे मुसलमान, कुलीनतंत्र, सिपाही और किसान सब ब्रितानियों के विरूद्ध हो गए और अवध असंतोष का बड़ा केंद्र बन गया। "

ब्रितानियों की साम्राज्यवादी नीति सर चार्ल्स नेपियर के इस कथन से स्पष्ट होती है, " यदि मैं भारत का सम्राट् 12 वर्ष के लिए भी होता, तो एक भी भारतीय राजा नहीं बचता। निज़ाम का नाम भी कोई न सुन पाता, नेपाल हमारा देश होता। " डलहौज़ी की साम्राज्यवादी नीति ने भारतीय नरेशों में ब्रितानियों के प्रति गहरा असंतोष एवं घृणा की भावना उत्पन्न कर दी। इसके साथ ही राजभक्त लोगों को भी अपने अस्तित्व पर संदेह होने लगा। वस्तुतः डलहौज़ी की इस नीति ने भारतीयों पर बहुत गहरा प्रभाव डाला। मि. लुडलो ने लिखा है, " निश्चय ही भारत में कोई ऐसी स्त्री या बच्चा नहीं था, जो कि हमारी इस विलीनीकरण के कारण हमारा शत्रु न हो। " इन परिस्थितियों में ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध विद्रोह एक मानवीय आवश्यकता बन गया था।

देशी रियासतों के अपहरण के भयंकर परिणामों का वर्णन करते हुए मद्रास कौसिल के सदस्य जॉन स्लीवन ने लिखा है, " जब किसी देशी रियासत का अंत किया जाता है, तब वहाँ के नरेश को हटाकर एक ब्रितानी नियुक्त कर दिया जाता है। उस पुराने छोटे से दरबार का लोप हो जाता है, वहाँ का व्यापार शिथिल पड़ जाता है, राजधानी वीरान हो जाती है, लोग निर्धन हो जाते हैं, ब्रितानी फलते-फूलते हैं और स्पंज की तरह गंगा के किनारे से धन खींचकर टेम्स नदी के किनारे ले जाकर निचोड़ देते हैं। " वस्तुतः किसी भी देश की स्वाभिमानी जनता इस स्थिति को सहन नहीं कर सकती थी।

2. मुग़ल सम्राट बहादुरशाह के साथ दुर्व्यवहार : मुग़ल सम्राट बहादुरशाह भावुक एवं दयालु प्रकृति के थे। देशी राजा एवं भारतीय जनता अब भी उनके प्रति श्रद्धा रखते थे। ब्रितानियों ने मुग़ल सम्राट बहादुरशाह के साथ बड़ा दुर्व्यवहार किया। अब ब्रितानियों ने मुग़ल सम्राट को नज़राना देना एवं उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित करना समाप्त कर दिया। मुद्रा पर से सम्राट का नाम हटा दिया गया। इतना ही नहीं, ब्रितानी तो मुग़ल सम्राट के पद को ही समाप्त करने पर तुले थे। अतः उन्होंने बहादुरशाह के ज्येष्ठ पुत्र जवांबख्त को युवराज स्वीकार नहीं किया। ब्रितानियों ने 1856 ई. में बहादुरशाह के सबसे अयोग्य पुत्र मिर्जा कोयास को युवराज घोषित किया एवं उनके साथ एक समझौता किया, जिसके अनुसार यह निश्चय किया गया कि मिर्जा कोयास शासक बन के स्वयं को बादशाह के स्थान पर शहज़ादा कहेंगे, एक लाख रुपये के बजाय पन्द्रह हज़ार रुपये मासिक पेन्शन लेंगे एवं लाल क़िले के स्थान पर कुतुब में रहेंगे। अब डलहौजी ने बहादुरशाह को लाल क़िला ख़ाली कर कुतुब में जाकर रहने हेतु कहा। कोयास भी ब्रितानियों से मिल गया। सम्राट ने ऊपरी वैभव और ऐश्वर्य के अनेक भूषण उत्तर चुके थे। डलहौजी ने मैटकाफ को लिखा कि, बादशाह के अधिकार, जिन पर तैमूर के वंशजों को घमंड था, एक-दूसरे के बाद छिन चुके हैं, इसलिए बाहदुरशाह के मरने बाद कलम के एक डोबे से बादशाह की उपाधि का अंत कर देना कुछ भी कठिन नहीं है। जनता मुग़ल सम्राट के प्रति इस दुर्व्यवहार को सहन नहीं कर सकती थी। अतः उसने मुग़ल सम्राट को अपना नेता बनाकर ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है, "उधर मुग़ल बादशाह व्यक्तिगत रूप से जितने भी असहाय रहे, रहे हो, परंतु उनका पद अब भी जनता के लिए श्रद्धा का विषय बना हुआ था। बादशाह के प्रति ब्रितानियों का व्यवहार जैसे-जैसे सम्मान रहित होता जा रहा था, वैसे-वैसे जनता के मन में ब्रितानियों के प्रति द्वेषभाव भी उग्र रूप धारण करता जा रहा था। बादशाह से उसका महल, क़िला और उनकी उपाधियाँ छीन लेने की एलेनबरो और डलहौजी की योजनाओं से ब्रितानियों के प्रति जनता का क्रोध और घृणा उग्र हो गए और बादशाह के प्रति उनके मन में श्रद्धा का भाव बढ़ने लगा। ब्रितानी तो अपनी स्थिति दृढ़ बना चुके थे, अतः उनकी धृष्टता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी, जिससे उनके प्रति जनता की घृणा उग्रतर होती जा रही थी, परंतु ब्रितानियों के पास जनता की भावनाओं से परिचय पाने का साधन ही क्या था? यह घृणा विप्लव के रूप में फूट पड़ी। "

3. नाना साहब के साथ अन्याय : लार्ड डलहौज़ी ने बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब के साथ भी बड़ा दुर्व्यवहार किया। नाना साहब की 8लाख रुपये की पेन्शन बंद कर दी गई। फलतः नाना साहब ब्रितानियों के शत्रु बन गए और उन्होंने 1857 ई. के विप्लव का नेतृत्व किया।

4. समकालीन परिस्थितियाँ : भारतीय लोग पहले ब्रितानी सैनिकों को अपराजित मानते थे, किंतु क्रिमिया एवं अफ़ग़ानिस्तान के युद्धों में ब्रितानियों की जो दुर्दशा हुई, उसने भारतीयों के इस भ्रम को मिटा दिया। इसी समय रूस द्वारा क्रीमिया की पराजय का बदला लेने के लिए भारत आक्रमण करने तथा भारत द्वारा उसका साथ देने की योजना की अफ़वाह फैली। इससे भारतीयों में विद्रोह की भावना को बल मिला। उन्होंने सोचा कि ब्रितानियों के रूस के विरूद्ध व्यस्त होने के समय वे विद्रोह करके ब्रितानियों को भारत से खदेड़ सकते हैं।

इसी समय एक ज्योतिष ने यह भविष्यवाणी की कि भारत में ब्रितानियों का शासन स्थापना के सौ वर्षों के पश्चात् समाप्त हो जाएगा। चूंकि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य 1757 ई. में प्लासी के युद्ध द्वारा स्थापित हुआ था एवं 1857 ई. में इसके 100 वर्ष पूरे हो चुके थे। अतः इससे भी भारतीयों को प्रेरणा मिली। विचारशील विद्वानों का कहना है कि सन् 1857 के विप्लव की नींव वास्तव में सन् 1757 में प्लासी की युद्ध-भूमि पर रखी गई थी। सन् 57 के विप्लव में भाग लेने वाले असंख्य भारतीय सिपाहियों के मुख से जो ओजस्वी वाक्य निकला करते थे उनमें एक वाक्य यह भी था, " आज हम प्लासी के युद्ध का बदला चुकाने वाले है। "

प्रो. इन्द्र विद्यावाचस्पति ने लिखा है, " आप प्लासी के युद्ध से लेकर सन् 1856 तक के 100 वर्षों की राजनीतिक प्रगति पर विचार कीजिए। पुराने राजवंशों को रोंदती, पहाड़ों और नदियों की सीमाओं को लांघती हुई, ब्रितानी राज्य की गाड़ी आगे बढ़ती ही गई। भारत में शासन करने वाले छोटे-बड़े शासकों और सामंतों की संख्या उस समय शायद सहस्रों तक पहुँचती थी। ब्रिटिश राज्य की गाड़ी के पहिये इन सब की छाती पर बेरहमी से गुज़रे। यदि ब्रितानी राज्य इतनी तीव्र गति से न फैलता और ब्रितानी शासन जो घाव लगाते थे, उस पर साथ ही साथ मरहम लगाते जाते, तो शायद बैचेनी इतनी न बढ़ती, परंतु सरल सफलता ने उन्हें इतना गर्वित और असावधान बना दिया कि उन्हें आहत स्थान (चोट लगे स्थान) पर मरहम लगाने की तो क्या, सहलाने तक की फ़ुर्सत न मिली। "

प्रशासनिक कारण

ब्रितानियों की विविध त्रुटिपूर्ण नीतियों के कारण भारत में प्रचलित संस्थाओं एवं परंपराओं का समापन होता जा रहा था। प्रशासन जनता से पृथक हो रहा था। ब्रितानियों ने भेद-भाव पूर्ण नीति अपनाते हुए भारतीयों को प्रशासनिक सेवाओं में सम्मिलित नहीं होना दिया। लार्ड कार्नवालिस भारतीयों को उच्च सेवाओं के अयोग्य मानता था। अतः उन्होंने उच्च पदों पर भारतीयों को हटाकर ब्रितानियों को नियुक्त किया। 1833 ई. में कंपनी ने चार्टर एक्ट पारित किया। इन एक्ट के द्वारा भारतीयों को यह आश्वासन दिया गया कि धर्म, वंश, जन्म, रंग आदि आधारों पर नौकरियों में प्रवेश के संबंध में कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा, किंतु यह सिद्धांत मात्र सिद्धांत ही बना रहा। ब्रितानी न्याय के क्षेत्र में स्वयं को भारतीयों से उच्च व श्रेष्ठ समझते थे। भारतीय जज किसी ब्रितानी के विरूद्ध मुकदमे की सुनवाई नहीं कर सकते थे। ब्रितानियों की न्याय प्रणाली अपव्ययी एवं चंबी थी तथा अनिश्चित थी, अतः भारतीय इससे असंतुष्ट थे। भूमि सुधार के नाम पर ब्रितानियों ने कई ज़मींदारों के पट्टों की छान-बीन की तथा जिन लोगों के पास ज़मीन पट्टे नहीं मिले, उनसे उनकी ज़मीन छीन ली। बंबई के विख्यात इमाम आयोग ने लगभग बीस हज़ार जागीरें छीन ली थी। बैन्टिक ने माफ़ की गई भूमि भी ज़प्त कर ली। इससे कुलीन वर्ग अपनी भूमि व संपत्ति से वंचित हो गया, जिससे उसमें असंतोष को जन्म मिला। कृषकों की दशा में सुधार करने के लिए स्थाई बंदोबस्त, रैय्यवाड़ी एवं महालवाड़ी प्रथा लागु की गई, किन्तु प्रत्येक बार किसानों से अधिक लगान वसूल किया गया। इससे किसानों में निर्धनता बढ़ी तथा साथ ही असन्तोष भी।

सर जॉन स्ट्रेजी ने 1854 ई. में बंगाल की दुर्दशा का वर्णन करते हुए लिखा, " लगभग एक शताब्दी के ब्रिटिश प्रशासन के बावजूद, प्रायः न ही तो सड़कें, पुल और स्कूल थे और नहीं जीवन और सम्पत्ति की कोई सुरक्षा थी। पुलिस निकम्मी थी और सशस्त्र व्यक्तियों के समूहों (जत्थों) द्वारा डाक तथा हिंसात्मक अपराध, जो कि अन्य प्रान्तों में नहीं सुने जाते थे, बंगाल में कलकत्ता से थोड़ी दूर पर ही सुने जा सकते थे। "

डॉ. आर. सी. मजूमदार लिखते हैं, " जहाँ तक ब्रिटिश प्रशासन का सम्बन्ध है वह एक प्रकार से भारत में एक प्रयोग ही था, जिसको कोई उपयोगी परिणाम नहीं निकला था। विदेशी आक्रमण के विरूद्ध जनता को सुरक्षा प्राप्त थी, परन्तु चोरी, डकैती, अपराध तथा दूसरे अन्य कष्टों के विरूद्ध कोई सुरक्षा प्राप्त नहीं थी। न्यायालय अभी तक निष्पक्ष न्याय के साधन नहीं बने थे, जबकि पुलिस जनता को संरक्षण देने के बजाय उत्पीड़न की एक एजेन्सी बन गई थी ( क्योंकि कम्पनी के राज में रिश्वत प्रचलित थी)। जेल की भयानक दुर्दशा थी और जिला मजिस्ट्रेट कटिबद्ध थे कि यह विशेषरूप से कष्ट देने का स्थान बना रहे, जबकि चिकित्सा अधिकारी का प्रयत्न असफलतापूर्वक करते थे कि जेलों में जहाँ तक भी हो सके, मृत्यु दर (Death rate) कम से कम रहे। "

डॉ. मजूमदार आगे लिखते हैं कि, " उस समय (कम्पनी के राज में) भारतीयों को अपने ही देश के प्रशासन में कोई भाग नहीं था और वे केवल निष्क्रिय दर्शक बनकर रह गए थे। दासता का अभिशाप, जिसमें सभी तरह की बुराईयाँ होती हैं और जिसका करूणानजक वर्णन मिस्टर मुनरो (ईस्ट इण्डिया कम्पनी के समय मद्रास प्रेजीडेन्सी के गर्वनर) ने किया है, भारतीयों के चरित्र पर बहुत बड़ी मात्रा में विनाशकारी तथा पतनोन्मुख प्रभाव डाला रहा था। जब तक ब्रितानियों ने भारत में अपने राज के 100 वर्ष पूरे किए, उन्होंने सारे भारत को जीत लिया था, परन्तु भारतीयों के दिल पर उनकी पकड़ या प्रभाव जाता रहा था। ब्रिटिश सरकार इस हेतु पूर्ण सचेत थी और अपने भारतीय साम्राज्य की सुरक्ष की योजना तैयार करते समय उन्होंने उस महत्त्वपूर्ण तत्व को पूरे ध्यान में रखा। "

भारत में ब्रितानियों की सत्ता स्थापित होने के पश्चात् देश में एक शक्तिशाली ब्रिटिश अधिकारी वर्ग का उदय हुआ। यह वर्ग भारतीयों से घृणा करता था एवं उससे मिलना पसन्द नहीं करता था। ब्रितानी भारतीयों के साथ कुत्तों के समान व्यवहार करते थे। ब्रितानियों की इस नीति से भारतीय युद्ध हो उठे और उनमें असन्तोष की ज्वाला धधकने लगी।

सामाजिक कारण

1. ब्रितानियों द्वारा भारतीयोके सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप : ब्रितानियों ने भारतीयों के सामाजिक जीवन में जो हस्तक्षेप किया, उनके कारण भारत की परम्परावादी एवं रूढ़िवादी जनता उनसे रूष्ट हो गई। लार्ड विलियम बैन्टिक ने सती प्रथा को गैर कानूनी घोषित कर दिया और लोर्ड कैनिंग ने विधवा विवाह की प्रथा को मान्यता दे दी। इसके फलस्वरूप जनता में गहरा रोष उत्पन्न हुआ। इसके अलावा 1856 ई. में पैतृतक सम्पति के सम्बन्ध मे एक कानुन बनाकर हिन्दुओं के उत्तराधिकार नियमों में परिवर्तन किया गया। इसके द्वारा यह निश्चित किया गया कि ईसाई धर्म ग्रहण करने वाले व्यक्ति का अपनी पैतृक सम्पति में हिस्सा बना रहेगा। रूढ़िवादी भारतीय अपने सामाजिक जीवन में ब्रितानियों के इस प्रकार के हस्तक्षेप को पसन्द नहीं कर सकते थे। अतः उन्होंने विद्रोह का मार्ग अपनाने का निश्चय किया। जवाहर लाल नेहरू के अनुसार, " क्रान्ति सामाजिक परिवर्तनों को असफल करने का एक अंशपूर्ण प्रयास था, जिसमें नये ढाँचे की विजय हुई।"

2. पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव : पाश्चात्य शिक्षा ने भारतीय समाज की मूल विशेषताओं को समाप्त कर दिया। आभार प्रदर्शन, कर्तव्यपालन, परस्पर सहयोग आदि भारतीय समाज की परम्परागत विशेषता थी, किन्तु ब्रितानी शिक्षा ने इसे नष्ट कर दिया। इसके सम्बन्ध में जान ब्राइट ने 1853 ई. में हाउस ऑफ कॉमन्स में कहा था, च् जिस देश में शिक्षण व्यवस्था का इतना प्रसार था कि हर गाँव में अध्यापक वैसे ही नियमित रूप से मिलता था, जैसे मुखिया और पटेल, उस व्यवस्था को सरकार ने लगभग समूचा नष्ट कर दिया है। जो रिक्त (खाली) स्थान बना है, उसकी पूर्ति के लिए या उसकी जगह और अच्छी व्यवस्था कायम रखने के लिए उसने कुछ भी नहीं किया। हिन्दुस्तान के लोग निर्धनता और ह्यस की दशा में हैं, जिसकी मिसाल इतिहास में नहीं मिलती।" पाश्चात्य सभ्यता ने भारतीयों के रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचार, शिष्टाचार एवं व्यवहार में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया। इससे भारतीय सामाजिक जीवन की मौलिकता समाप्त होने लगी। ब्रितानियों द्वारा अपनी जागीरें छीन लेने से कुलीन नाराज थे, ब्रितानियों द्वारा भारतीयों के सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप करने से भारतीयों में यह आशंका उत्पन्न हो गई कि ब्रितानी पाश्चात्य संस्कृति का प्रसार करना चाहते हैं। भारतीय रूढ़िवादी जनता ने रेल, तार आदि वैज्ञानिक प्रयोगों को अपनी सभ्यता के विरूद्ध माना।

3. भारतीयों के प्रति भेद-भाव नीति : ब्रितानी भारतीयों को निम्न कोटि का मानते थे तथा उनसे धृणा करते थे। उन्होंने भारतीयों के प्रति भेद-भाव पूर्ण नीति अपनायी। वे भारतीयों को अपमानित करते थे, उन्हें मारते थे एवं उनकी स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार करते थे। भारतीयों को रेलों में प्रथम श्रेणी के डब्बे में सफर करने का अधिकार नहीं था। ब्रितानियों द्वारा संचालित क्लबों तथा होटलों में भारतीयों को प्रवेश नहीं दिया जाता था। इन क्लबों तथा होटलों की तख्तियों पर "कुत्तों तथा भारतीयांे" के लिए प्रवेश वर्जित लिखा रहा था। ब्रितानियों की भावना का पता आगरा के मजिस्ट्रेट के इस आदेश से चलता है, "किसी भी कोटि के भारतीयों के लिए कठोर सजाओं की व्यवस्था करके उसे विवश किया जाना चाहिए कि वह सड़क पर चलने वाले प्रत्येक ब्रितानी को सलाम करे और यदि कोई भारतीय घोड़े पर चढ़ा हो या किसी गाड़ी में हो, तो उसे नीचे उतरकर आदर प्रदर्शित करते हुए उस समय तक खड़ा रहना चाहिए, जब तक कि उक्त ब्रितानी चला नहीं जाता।"

इस बात के कई उदाहरण है, जिनमें यह पता चलता है कि ब्रितानी भारतीयों के साथ भेद-भाव पूर्ण व्यवहार करते थे। मद्रास परिषद् के सदस्य मि. मेलकम ने लिखा है, "समाज के सदस्यों की हैसियत से हम दोनों अर्थात् ब्रितानी और हिन्दुस्तानी एक दूसरे से अपरिचित हैं। हमारा एक दूसरे से मालिक और गुलामों जैसा सम्बन्ध है। हमनें प्रत्येक ऐसी वस्तु भारतीयों छीन ली है, जो उन्हें मनुष्य की हैसियत से ऊँचा कर सकती थी। हमने उन्हें जाति भ्रष्ट कर दिया है, उनके उत्तराधिकार के नियमों को रद्द कर दिया है, हमने वैवाहिक संस्थाओ को बदल दिया है, उनके धर्म के पवित्रम रिवाजों की अवहेलना की है। उनके मंदिरों की जायदादों को ज़ब्त कर लिया है। अपने सरकारी लेखों में हमने उन्हें क़ाफ़िर कहकर कलंकित किया है, अपनी लूट खसोट से हमने देश को बरबाद कर दिया है और लोगों से ज़बरदस्ती माल-गुज़ारी वसूल की है। हमने संसार के सबसे प्राचीन उच्च परिवारों को गिराकर पतित शूद्रों की स्थिति में धकेलने की चेष्टा की है।"

4. पाश्चात्य संस्कृति को प्रोत्साहन : ब्रितानियों ने अपनी संस्कृति को प्रोत्साहन दिया तथा भारत में इसका प्रचार किया। उन्होंने युरोपीय चिकित्सा विज्ञान को प्रेरित किया, जो भारतीय चिकित्सा विज्ञान के विरूद्ध था। भारतीय जनता ने तार एवं रेल को अपनी सभ्यता के विरूद्ध समझा। ब्रितानियों ने ईसाई धर्म को बहुत प्रोत्साहन दिया। स्कूल, अस्पताल, दफ़्तर एवं सेना ईसाई धर्म के प्रचार के केंद्र बन गए। अब भारतीयों को विश्वास हुआ कि ब्रितानी उनकी संस्कृति को नष्ट करना चाहते हैं। अतः उनमें गहरा असंतोष उत्पन्न हुआ, जिसने क्रांति का रूप धारण कर लिया।

धार्मिक कारण

भारत में सर्वप्रथम ईसाई धर्म का प्रचार पुर्तगालियों ने किया था, किन्तु ब्रितानियों ने इसे बहुत फैलाया। 1831 ई. में चार्टर एक्ट पारित किया गया, जिसेक द्वारा ईसाई मिशनरियों को भारत में स्वतन्त्रापूर्वक अपने धर्म का प्रचार करने की स्वतन्त्रता दे दी गई। कम्पनी के निदेशक मण्डल के प्रधान श्री मेगल्स ने ब्रिटिश संसद में घोषणा की, च् परमात्मा ने भारत का विस्तृत साम्राज्य ब्रिटेन को प्रदान किया है, ताकि ईसाई धर्म की पताका भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक फहरा सकें। प्रत्येक व्यक्ति को अविलम्ब ही देश में समस्त भारतीयों को ईसाई धर्म में परिणीत करने के महान् कार्य को सभी प्रकार से सम्पन्न करने में अपनी शक्ति लगा देनी चाहिए, ताकि सारे भारत को ईसाी बना लेने के महान् कार्य में देश भर में कहीं पर किसी कारण जरा भी ढील न आने पाये। छ ब्रितानियों ने इस नीति को अपनाते हुए भारत में ईसाई धर्म के प्रचार के लिए सभी प्रकार की सुविधाएँ प्रदान की।

ईसाई धर्म के प्रचारकों ने खुलकर हिंदू धर्म एवं इस्लाम धर्म की निंदा की। वे हिंदुओं तथा मुसलामानों के अवतारों, पैग़ंबरों एवं महापुरुषों की खुलकर निंदा करते थे तथा उन्हें कुकर्मी कहते थे। वे इन धर्मों की बुराइयों को बढ़-चढ़ाकर बताते थे तथा अपने धर्म को इन धर्मो से श्रेष्ठ बताते थे। सेना में भी ईसाई धर्म का प्रचार किया गया। पादरी लेफ्टिनेन्ट तथा मिशनरी कर्नल भारतीयों में ईसाई धर्म का प्रचार करते थे। ईसाई बन जाने पर भारतीय सैनिकों को पदोन्नति मिलती थी। सरकारी विद्यालयों में बाइबिल का अनिवार्य रूप से अध्ययन करवाया जाता था। हिंदू धर्म के विद्यालयों में हिंदू धर्म शिक्षा पर रोक लगा दी गई क्योंकि ब्रितानियों ने राज्य को ऊपर से धर्म निरपेक्षता का लबादा ओढ़ा दिया था। मिशनरी स्कूल में पड़े भारतीय विद्यार्थियों का अपने धर्म से विश्वास उठ गया तथा खुलकर उसकी आलोचना करने लगे। अतः भारतीय ब्रितानियों की भारत में ईसाई धर्म के प्रचार की चाल को समझ गए तथा उनमें गहरा असंतोष उत्पन्न हुआ, जिसने विद्रोह का रूप ले लिया। स्मिथ का कहना है कि-हिंदू शिक्षा को व्यर्थ बताया गया और मिशनरी लोगों को गैर सरकारी तौर पर प्रोत्साहन दिया गया जैसे कि मैकाले कि शिक्षा रिपोर्ट से स्पष्ट है। विधवाओं को शादी का जायज़ अधिकार दिया गया और धर्म-परिवर्तित को संपत्ति का। क्या यह ऐसी इच्छाओं का सबूत नहीं था कि प्राचीन धर्म को परिवर्तन कर जीवन के महत्व को बदल दिया जाए?

इतिहासकार नॉलन ने लिखा है: "ब्रितानी सरकार सिपाहियों के धार्मिक भावों की अवहेलना करने लगी और बात-बात में उनके धार्मिक नियमों का उल्लंघन किया जाने लगा। यहाँ तक कि कंपनी की सेना में अनेक ब्रितानी अफ़सर खुले तौर पर अपने सिपाहियों का धर्म परिवर्तन करने के कार्य में लग गए। कॉलेज ऑफ दी इंडियन रिवोल्ट नामक पत्रिका का भारतीय रचयिता लिखते है, सन् 1857 के शुरू में हिंदुस्तानी सेना के बहुत से कर्नल सेना को ईसाई बनाने के अत्यंत पैशाचिक और दुष्कर काम में लगे हुए पाए गए। उसके बाद यह पता चला कि इन जोशीले अफ़सरों में अनेक न रोज़ी के खाल से फ़ौज में भर्ती हुए थे, न इसलिए भर्ती हुए थे कि फ़ौज का काम उनकी प्रकृति के सबसे अधिक अनुकूल था, बल्कि उनका एकमात्र उद्देश्य यही था कि इस ज़रिये से लोगों को ईसाई बनाया जा बंगाल की पैदल सेना के एक ब्रितानी कमांडर ने अपनी सरकारी रिपोर्ट में लिखा है, मैं लगातार 28 साल से भारतीय सिपाहियों को ईसाई बनाने की नीति पर अमल करता रहा हूँ। सेना में धर्म-प्रचार का वर्णन करते हुए एडवर्ड स्टैनफोर्ड ने अपने प्रकाशन दी कॉजेज ऑफ दी इंडियन रिवोल्ट बाइ ए हिंदू ऑफ बंगाल में लिखा है कि हिंदू और मुसलमान धर्मों पर कटाक्ष करने में इनकी आवाज़ और ऊँची होने लगी।...(ये कहने लगे कि) मुहम्मद और राम, जिनको तुम आज तक सच्चा प्रभु मानते रहे हो, वास्तव में उच्च कोटि के छद्म वेशधारी अनैतिक कुकर्मी हैं।... परिणाम हुआ। महान असन्तोष्‌।

डॉ. आर. सी. मजूमदार लिखते हैं, सिपाहियों को यह आम आशंका तथा सन्देह था कि सरकार का इरादा जानबूझकर सारे भारत वर्ष को ईसाई धर्म में परिवर्तित करना था, चाहे इस हेतु साधन अच्छे हों अथवा बुरे। जब सैनिक छावनियों में यह प्रचार होने लगा, तो उनको पूरी तरह यह विश्वास हो गया। कर्नल ह्यीलर, जो कि बैरकपुर (बंगाल) में सिपाहियों की एक रेजीमेण्ट के आदेश अधिकारी थे, सिपाहियों में ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिऐ साहित्य बांटा करते थे और उन्हें ईसाई धर्म स्वीकार करने का उपदेश देते थे।...इस सिलसिले में एक सैनिक ईसाई प्रचारक, मेजर मैकेन्जी का नाम भी लिया जाता है। सर सैयद अहमद खाँ ने लिखा है, सभी व्यक्ति, चाहे बुद्धिमान थे अथवा निरक्षर, सम्माननीय व्यक्ति थे अथवा नहीं, यह विश्वास करते थे कि सरकार वास्तव में सच्चे रूप में लोगों के रीति-रिवाज तथा धर्म में हस्तक्षेप करने की इच्छुक थी। चाहे वे हिन्दू हों अथवा मुस्लिम, सरकार सबको ईसाई बनाना चाहती थी और उनकी यूरोपीय आदतों तथा रहन-सहन के तरीकों को अपनाने के लिए विविश कर रही थी।

एक भारतीय विद्वान ने 1857 ई. की महान् क्रान्ति की पृष्ठभूमि नामक लेख में बताया है कि ब्रितानी राजनीतिज्ञ यह भली प्रकार जान गए हैं कि किसी भी जाति या राष्ट्र को सदियों तक पराधीन बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी जनता के हृदय से राष्ट्रीय स्वाभिमान, उसकी श्रेष्ठता, प्राचीनता के गौरव की प्रवृति तथा अनुभूति सर्वथा नष्ट कर देनी चाहिए। अन्य जिन देशों में वे गए उन्हें जंगली, असभ्य एवं अशिक्षित बताकर उनका अपमान किया और उनकी खिल्ली उड़ाई गई। परन्तु भारत की स्थिति उनसे सर्वथा भिन्न थी। यहाँ की संस्कृति, साहित्य, इतिहास तथा धार्मिक श्रेष्ठता इतनी प्राचीन और महान थी कि उसे सहसा दबा देना सम्भव नहीं था। सच तो यह है कि इन सबके प्रति सर्वसाधारण की जो अनुभूति थी और ब्रितानियों ने उन्हें मिटाने का जो प्रयत्न किया था वह 1857 ई. की क्रान्ति का एक प्रधान कारण था।

ब्रितानी भारतीयों की दृढ़ता से शायद परिचित नहीं थे। उनकी यह भूल थी कि वे अपनी शक्ति के समक्ष भारतीय संस्कृति और धर्म को रौंद देंगे। विनायक दामोदर सावरकर ने अपनी पुस्तक भारत का स्वतंत्रता संग्राम में लिखा है कि हमारे इस महान् वैभवशाली देश को काले रंगो में चित्रित करने का प्रयास चाहे जितना भी किया जाए, जब तक चित्तौड़ का नाम हमारे इतिहास के पन्नों से मिटा नहीं दिया जाता, जब तक उन पन्नों में प्रतिपादित तथा गुरु गोविंद सिंह के नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है, तब तक भारतवर्ष के सपूतों के रोम-रोम से स्वधर्म तथा स्वराज्य का अमर संगीत मुखरित होता रहेगा।

बेरोज़गारों, विधवाओं अनाथों आदि को बलपूर्वक ईसाई बनाया गया। भारत में ईसाईर् धर्म का प्रचार करने के लिए विभिन्न प्रकार के प्रलोभनों का सहारा लिया गया। ईसाई धर्म स्वीकार करने पर अपराधियों को अपराध मुक्त कर दिया जाता था। विलियम बैटिक ने नियम बनाया कि ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले व्यक्ति का पैतृक संपत्ति में हिस्सा बना रहेगा। कप्तान टी. मैकन ने संसद की विशेष समिति के सामने बयान देते हुए एक पादरी के प्रचार-शब्द दोहराये, जो भारतीय जनता का व्याख्यान देते हुए कह रहा था कि तुम लोग मुहम्मद के ज़रिये अपने पापों की माफ़ी की आशा करते हो, किंतु मुहम्मद इस समय दोजख में है और यदि तुम लोग मुहम्मद के उसूलों पर विश्वास करते रहोगे तो तुम सब भी दोजख में जाओगे। इन सब बातों से जहाँ तक ओर ईसाई धर्म का प्रचार हुआ, वहीं भारतीयों का असंतोष भी बढ़ने लगा।

इस समय भारतीयों की मान्यता थी कि मुसलमानों एवं ईसाइयों के हाथ के छुए पात्र से पानी पीने से धर्म भ्रष्ट हो जाता है, अतः हिंदू लोग जेल जाते समय अपने साथ जल पात्र ले जाते थे, किंतु सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया। इससे हिंदुओं ने यह समझा कि ब्रितानी उनका धर्म भ्रष्ट करना चाहते हैं, अतः उनमें ब्रितानियों के प्रति असंतोष बढ़ने लगा, जो विद्रोह के रूप में प्रकट हुआ।

आर्थिक कारण

1. व्यापार का विनाश : ब्रितानियों ने भारतीयों का जमकर आर्थिक शोषण किया था। ब्रितानियों ने भारत में लूट-मार करके धन प्राप्त किया तथा उसे इंग्लैंड भेज दिया। ब्रितानियों ने भारत से कच्चा माल इंग्लेण्ड भेजा तथा वहाँ से मशीनों द्वारा माल तैयार होकर भारत आने लगा। इसके फलस्वरूप भारत दिन-प्रतिदिन निर्धन होने लगा। इसके कारण भारतीयों के उद्योग धंधे नष्ट होने लगे। इस प्रकार ब्रितानियों ने भारतीयों के व्यापार पर अपना नियंत्रण स्थापित कर भारतीयों का आर्थिक शोषण किया। पंडित नेहरु ने लिखा है, एक ग्रामीण उद्योग के बाद दूसरा ग्रामीण उद्योग नष्ट होता गया और भारत ब्रिटेन का आर्थिक उपांग या पुछल्ल बन गया। छ श्री रजनी पाम दत्त ने लिखा है, 1814 से 1835 के बीच में ग्रेट ब्रिटेन से भारत में भेजा जाने वाला कपड़ा 10 लाख गज से बढ़कर 510 लाख गज़ हो गया। दूसरी और इस समय के बीच में भारत से इंग्लैंड भेजा जाने वाला कपड़ा 121/2 लाख टुकड़ों से घटकर 3 लाख टुकड़े रह गया। 1844 तक यह घटकर 63,000 टुकड़े ही रह गया।

श्री रजनी पाम दत्त आगे लिखते हैं, इंग्लैण्ड से भारत में आने वाले कपड़े तथा भारत से इंग्लैंड में भेजे जाने वाले कपडे के मूल्य में भी महान् अंतर था। 1812 ई. और 1832 ई. के बीच भारत से बाहर भेजे जाने वाली सूती कपड़े 13 लाख पौंड से घटकर एक लाख पौंड से कर रह गया अर्थात् 17 वर्षों के विदेशी व्यापार का बारहवाँ या तहेरवां भाग रह गया। इन्हीं वर्षों में इंग्लैंड से भारत में आयात किए जाने वाले कपड़े का मूल्य 26,000 पौंड से बढ़कर 4 लाख पौंड हो गया अर्थात् 16 गुना हो गया। 1850 ई. तक भारत की यह दुर्दशा हो गई कि जो देश शताब्दियों से संसार को सूती कपड़ा निर्यात करता रहा था, वह ब्रिटेन से बाहर भेजे जाने वाले कुल सूती कपड़े का चौथा भाग आयात कर रहा था।

2. किसानों का शोषण : ब्रितानियों ने कृषकों की दशा सुधार करने के नाम पर स्थाई बंदोबस्त, रैय्यवाड़ी एवं महालवाड़ी प्रथा लागू की, किंतु इस सभी प्रथाओं में किसानों का शोषण किया गया तथा उनसे बहुत अधिक लगान वसूल किया गया। इससे किसानों की हालत बिगड़ती गई। समय पर कर न चुका पाने वाले किसानों की भूमि को नीलाम कर दिया जाता था। जॉ. आर. सी. मजूमदार ने लिखा है, ब्रितानियों द्वारा भूमि कर वसूल करने की जो नई व्यवस्थाएँ स्थापित की गई और उनमें भूमि कर वसूल करने के जो दर (Rate) निर्धारित किए गए, वे इतने अधिक ऊँचे थे कि उससे किसान इतने निर्धन हो गए कि उनके पास भोजन तथा कपड़े की न्यूनतम आवश्यकताओ को पूरा करने के लिए भी धन न रहा।

3. अकाल : अंग्रेजों के शासन काल में बार-बार अकाल पड़े, जिसने किसानों की स्थिति और ख़राब हो गई। विलियम डिग्वी के अनुसार 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में सरकारी आँकड़ों के अनुसार 15 लाख आदमी अकाल में मरे। दुर्भिक्षों से निटपने की सरकारी कोई नीति नहीं थी। सरजान स्ट्रेची ने तो दुर्भिक्षों पर रोकथाम की असमर्थता करते हुए कह दिया था कि भारत में अकाल बाढ़ ठीक उसी प्रकार आते हैं, जैसे कि पौधे पर फूल, हर मौसम में, हर साल और कभी-कभी तो सारे सारे साल। वारेन हेस्टिंग्ज जब गवर्नर जनरल बनकर भारत आया था, तब देश की दशा दयनीय हो रही थी। इतिहासकार डेविस अपनी पुस्तक वारेन एस्टिंग्ज में कहते हैं कि च् जब हेस्टिंग्ज कलकत्ते पहुँचा, तब अकाल तोड़ कर रहा था। जीवित जनता लाशों को खा रही थी और गलियों के मुँह लाशों से रूँध गए थे।

श्री डब्ल्यू. ह्यस. लिल्ली ने अपनी पुस्तक "भारत तथा उसकी समस्याएँ" ( India and its problems) में भारत में अकाल से मरने वाले लोगों के निम्नलिखित आंकड़े सरकारी प्राक्कलनों के आधार पर दिए है।

वर्ष अकाल से होने वाली मृत्यु

1800-1825 10 लाख

1825-1850 4 लाख

1850-1875 50 लाख

1875-1900 11/2 करोड़

अतः डॉ. आर. सी. मजूमदार लिखते है, "जबकि ब्रितानियों द्वारा भारत के कपड़ा बनाने तथा अन्य उधोगोंे का नाश किए जाने के कारण जनता को कृषि के अरिरिक्त और कोई सहारा नहीं रहा, तो उस समय भारी भूमि कर की वसूली ने लोगों की मुसीबत के प्याले को और भी अधिक भर दिया। भारी भूमि पर की वसूली के कारण किसानों के लिए दो समय पेट भरकर रोटी खाना भी सम्भव नहीं रहा और विपत्ति के दिनों के लिए वे शायद ही कुछ बचा सकते थे। इसलिए जब प्राकृतिक कारणों से फसलें खराब हो जाती थीं, जैसा कि प्रत्येक देश में होता है, तो उस समय भारतीय किसानों के पास बुरे दिनों का सामना करने के लिए कुछ भी नहीं बचता था और वे हजारों की संख्या में पिस्सू (तुच्छ प्राणी) की भाँति मर गए। मौतों की संख्या तथा भू राजस्व के निर्धारण में गरहा सम्बन्ध तत्कालीन सरकारी अधिकारियों नें स्वयं दर्शाया है, परन्तु ब्रिटिश सरकार अपने ब्रितानी अधिकारियों के परामर्श तथा भारतीयों के सर्वसम्मत विरोध के बावजूद अत्याचारी भू राजस्व पद्धति से चिपकी रही।"

4. इनाम की जागीरे छीनना : बैन्टिक ने इनाम में दी गई जागीरें भी छीन ली, जिससे कुलीन वर्ग के गई लोग निर्धन हो गए और उन्हें दर-दर की ठोकरें खानी पडीं। बम्बई के विख्यान घ् इमाम आयोग ' ने 1852 में 20,000 जागीरें जब्त कर लीं। अतः कुलीनों में असन्तोष बढ़ने लगा, जो विद्रोह से ही शान्त हो सकता था।

5. भारतीय उद्योगों का नाश तथा बेरोजगारी : ब्रितानियों द्वारा अपनाईं गई आर्थिक शोषण की नीति के कारण भारत के घरेलू उद्योग नष्ट होने लगे तथा देश में व्यापक रूप से बेरोज़गारी फैली।

रजनी पाम दत्त ने लिखा है, "ब्रितानियों द्वारा भारतीय उद्योगों के सर्वथा नाश करने के परिणामों का अर्थव्यवस्था पर सहज में ही अनुमान लगाया जा सकता है। इंग्लैंड में पुराने हथकरधा उद्योगों का जो नाश हुआ, उसके स्थान पर मशीन उद्योग स्थापित हो गए, परंतु भारत में ही लाखों कारीगरों तथा शिल्पियों की तबाही, बरबादी के स्थान पर नए वैकल्पिक उद्योग स्थापित नहीं किए गए। पुराने घनी आबादी और कपड़ा वाले नगर जैसे ढ़ाका और मुर्शिदाबाद (जिसको क्लाइव ने 1757 ई. लंदन जैसा विस्तृत तथा घनी आबादी वाला बयान किया था), सूरत तथा अन्य इस प्रकार के नगर कुछ ही वर्षां में ब्रिटेन की शोषण करने की नीति के फलस्वरूप ऐसे पूर्ण रूप से उखड़ गए, जैसा कि कोई विनाशकारी युद्ध अथवा विदेशी विजय की लूट-पाट भी नहीं कर सकती थी। छ च्सर चार्ल्स ट्रिविलयिन ने 1840 ई. में संसदीय जाँच समिति के सम्मुख कहा, " ढ़ाका की आबादी 1,50,000 से घटकर 30,000 या 40,000 रह गई है और जंगल तथा मलेरिया शीघ्रता से नगर पर छाये जा रहे हैं। ढ़ाका, जो कि भारत का मानचेस्टर (इंग्लैंड का प्रसिद्ध औद्योगिक नगर) था, एक अत्यंत समृद्ध नगर से गिरकर एक छोटा सा कस्बा रह गया है। वहाँ वास्तव में बड़ी भारी विपत्ति आई है।"

देशी रियासतों के ब्रिटिश साम्राज्य में विलीनीकरण से कई सैनिक बेकार हो गए। इस तरह कम्पनी की नीतियों से कृषक, खेतीहर, मजूदर, कारीगर, सैनिक आदी बेकार हो गए थे, जिनकी संख्या लाखों में थी। इन बेरोजागर लोगों में ब्रिटिश शासन के विरूद्ध गहरा असन्तोष था, अतः इन्होंने विद्रोह का मार्ग अपनाया।

भारत को निर्धन देश बनाना

डॉ. आर. सी. मजूमदार ने लिखा है, "ब्रितानी राज के पहले 50 वर्षों के भारत के व्यापार तथा उद्योग-धन्धों का विनाश देखा, जिसके फलस्वरूप अधिकतर लोगों को खेती पर निर्भर होना पड़ा। अगले पचास वर्षों में कृषक, जो कि भारत की आबादी का 4/5 भाग था, तबाही-बर्बादी के किनारे पर पहुँच गया। 90 प्रतिशत किसानों को दिन में दो बार पेट भरने को रोटी भी नहीं मिलती थी, न ही उनके रहने के लिए अच्छा मकान तथा पहनने के लिए अच्छा कपड़ा था। इस तरह से भारत में उस पूर्ण तथा सर्वव्यापी निर्धनती की नींव रख दी गई, जो ब्रिटिश राज के पहले 100 वर्षों की मुख्य विशेषता थी।"

एक अन्य स्थान पर डॉ. मजूमदार ने लिखा है, "इस विषय में कोई सन्देह नहीं रह जाता कि भारी खर्चे के दो कारण थे। पहला कारण तो यह था कि प्रशासन केवल ऊँचे ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा संचालित था और उनको बहुत वेतन मिलता था। दूसरा कारण यह भी था ब्रिटेन ने भारत में युद्ध भारत के खर्चे पर ही लड़े। बर्मा तथा अफगानिस्तान के युद्धों में भारी ख़र्च हुआ। उसमें भारतीयों का कोई हित नहीं छिपा था। उसको ब्रितानियों ने केवल अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए लड़ा था, परन्तु उसका सारा खर्च भारत के राजस्व पर डाल दिया गया। अतः भारत में ऋण बढ़ने का कारण ब्रिटेन के साम्राज्यवादी युद्ध थे। दूसरे शब्दों में, भारत को ब्रितानियों द्वारा अपनी विजय के लिए भी खर्च सहन करना पड़ता था।"

भारत की आर्थिक दुदर्शा का वर्णन करते हुए जॉर्ज थोमसन ने लिखा है, "भारत की दशा की और देखिए, लोगों की परिस्थिति की तरफ देखिए, जो कि अधिक से अधिक निर्धन बना दिए गए हैं। राजाओं के राजपाट छीन लिए गए हैं, सामन्त या बड़े-बड़े जमींदार अपमानित किए गए हैं, भूस्वामी समाप्त कर दिए गए हैं, कृषक बर्बाद कर दिए गए है, बड़े-बड़े नगर खेती वाले गाँव बन गए हैं और गाँव बर्बाद हो गए हैं, भिखारीपन, गुण्डों के जत्थों द्वारा लूट-खसोट और विद्रोह प्रत्येक दिशा में बढ़ रहे है। यह कोई अतिश्योक्ति नहीं है। वर्तमान काल (1843 ई.) में भारत की यही स्थिति हैं। कई स्थानों पर बहुत अच्छी उपजाऊ भूमि को छोड़ दिया गया है। उद्योगों के लिए प्रोत्साहन दिया जाता रहा है। लोगों के लिए काफी अन्न उत्पन्न करने के बजाय भूमि लाखों मुर्गे गाड़ने की जगह बन गई है, जो कि भूख से तड़पते हुए मर जाते है। इसे सिद्ध करने के लिए गत वर्ष के दृश्यों पर ध्यान दीजिए। इस हेतु मेरे साथ बंगाल प्रेसीडेन्सी के उत्तरी पश्चिमी प्रापन्तों में चलिए, जहाँ में आपको 5 लाख लोगों की खोपड़ियाँ दिखा दूंगा, जो कि केवल कुछ ही महीनों में भूख से अकाल के दिनों में मर गए। हाँ, उस देश मे मर गए, जो संसार के अनाज का गोदाम कहलाता है।"

सैनिक कारण

ब्रितानियों ने भारतयी सेना की सहायता से ही सम्पूर्ण भारत में अपना साम्राज्य स्थापित किया था। अतः कम्पनी की सेना मे कई भारतीय सैनिक थे। वेलेजली द्वारा सहायक सन्धि की प्रथा अपनाने के कारण कम्पनी की सेना में भारतयी सैनिकों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। 1856 ई. में कम्पनी की सेना में 2,38000 भारतीय सैनिक एवं 43,322 ब्रितानी सैनिक थे। अपनी इस विशाल संख्या के कारण भारतीय सैनिक निर्भीक हो गए थे। इसके अलावा ब्रितानी सैनिकों का विभिन्न क्षेत्रों में वितरण भी ठीक नहीं था। कई तो ऐसे क्षेत्र थे, जहाँ सारे देशी सैनिक थे और ब्रितानी सैनिक नाम मात्र के थे। इसके अतिरिक्त योग्य ब्रितानी अधिकारियों को सीमान्त प्रान्तों एवं नवीन विजित प्रान्तों में भेज दिया गया था। अतः ब्रितानियों का अभाव होने लगा। अब भारतीय सैनिकों में यह भावना आने लगी कि यदि वे मिलकर योजनाबद्ध ढंग से ब्रितानियों के विरूद्ध अभियान करें, तो वे ब्रितानियों को भारत से बाहर खदेड़ सकते हैं। अतः उनमें विद्रोह की भावना को बल मिला।

भारतीय सैनिक अनेक कारणों से ब्रितानियों से रुष्ट थे। वेतन, भत्ते, पदोन्नति आदि के संबंध में उनके साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया जाता था। एक साधारण सैनिक का वेतन 7-8 रुपये मासिक होता था, जिसमें खाने तथा वर्दी का पैसा देने के बाद उनके पास एक या डेढ़ रुपया बचता था। भारतीयों के साथ ब्रितानियों की तुलना में पक्षपात किया जाता था। जैसे भारतीय सूबेदार का वेतन 35 रुपये मासिक था, जबकि ब्रितानी सूबेदार का वेतन 195 रुपये मासिक था। भारतीयों को सेना में उच्च पदों पर नियुक्त नहीं किया जाता था। उच्च पदों पर केवल ब्रितानी ही नियुक्त होते थे। डॉ. आर. सी. मजूमदार ने भारतीय सैनिकों के रोष के तीन कारण बतलाए हैं-

(1)बंगाल की सेना में अवध के अनेक सैनिक थे। अतः जब 1856 ई. में अवध को ब्रिटिश साम्राज्य में लिया गया, तो उनमें असंतोष उत्पन्न हुआ।
(2)ब्रितानियों ने सिक्ख सैनिकों को बाल कटाने के आदेश दिए तथा ऐसा न करने वालों को सेना से बाहर निकाल दिया।
(3)ब्रिटिश सरकार द्वारा ईसाई धर्म का प्रचार करने से भी भारतीय रुष्ट थे।

ब्रितानियों से क्रुद्ध भारतीय सैनिकों ने 1806 से 1855 ई. के मध्य अनेक बार विद्रोह किए, किंतु ब्रितानियों ने इन्हें दबा दिया तथा विद्रोही भारतीय सैनिकों पर अमानवीय अत्याचार किए। इससे भारतीय सैनिकों के मन में प्रतिशोध की ज्वाला धधक रही थी, जो 1857 ई. में फूट पड़ी।

इस समय भारतीय सैनिकों में अधिकांश जाट, ब्राह्मण, राजपूत एवं पठान आदि थे। वे रूढ़िवादी थे तथा धर्म को सर्वोपरि मानते थे। ब्रितानियों ने सैनिकों के माला पहनने व तिलक लगाने तथा दाढ़ी रखने पर पाबंदी लगा दी, तो ये सैनिक क्रुद्ध हो उठे एवं उनमें विद्रोह की भावना जन्म लेने लगी।

इस समय विदेश जाने वाले व्यक्ति को धर्म से बहिष्कृत कर दिया जाता था, अतः भारतीय सैनिकों ने विदेश जाने से इन्कार कर दिया। इस पर लार्ड कैनिंग ने 1856 ई. में सामान्य सेना भर्ती अधिनियम पारित कर यह व्यवस्था की कि भारतीय सैनिकों को युद्ध हेतु समुद्र पार विदेशों में भेजा जा सकता है। एक अन्य नियम बनाकर यह निश्चित किया गया कि विदेशों में सेवा हेतु अयोग्य समझे गए सैनिकों को अवकाश प्राप्त होने पर पेन्शन के स्थान पर छावनियों में नौकरी दी जाएगी। इससे भारतीय सैनिकों में इस विश्वास को बल मिला की ब्रितानी उनकी संस्कृति को नष्ट करने पर तुले हैं एवं ईसाई धर्म का प्रचार करना चाहते हैं। इससे विद्रोह का वातावरण तैयार हो गया।

तत्कालीन कारण

1857 ई. तक भारत में विद्रोह का वातावरण पूरी तरह तैयार हो चूका था और अब बारूद के ढेर में आग लगाने वाली केवल एक चिंगारी की आवश्यकता थी। यह चिंगारी चर्बी वाले कारतूसों ने प्रदान की। इस समय ब्रिटेन में एनफील्ड राइफ़ल का आविष्कार हुआ। इन राइफ़लों के कारतूसों को गाय एवं सुअर की चर्बी द्वारा चिकना बनाया जाता था। सैनिकों को मुँह से इसकी टोपी को काटना पड़ता था, उसके बाद ही ये कारतूस राइफ़ल में डाले जाते थे। सर जॉन के ने स्वीकार किया है, इसमें कोई संदेह नहीं कि इस मसाले को बनाने में गाय और सुअर कीचर्बी का उपयोग किया गया था। स्मिथ का कहना है कि- सत्य का पता चलने पर कारतूसों को वापस लेने से यह शक और भी बढ़ गया। इसे कमजोरी का चिन्ह समझा गया जो अपवित्र इरादों की पोल खुल जाने पर किया गया था। विख्यात इतिहासकार लैकी ने भी स्वीकार किया है, "भारतीय सिपाहियों ने जिन बातों के कारण विद्रोह किया, उनसे अधिक जबरदस्त बातें कभी विद्रोह को जायज करार देने के लिए हो ही नहीं सकतीं।" इस प्रकार प्रसिद्ध इतिहासकार विलियम लैकी का कहना है कि- "यह एक लज्जाजनक और भयंकर सत्य है कि जिस बात का सिपाहियों को विश्वास था वह बिलकुल सच थी।" डॉ. ईश्वरीप्रसाद का कहना कि "बढ़ते हुए असन्तोष के इस वातावरण में चर्बी लगे कारतूसों ने बारूदखाने में चिनगारी का काम किया। कई ब्रितानी इतिहासकार कारतूसों के मामले को सन् 57 की क्रान्ति का एकमात्र मुख्य कारण मानते हैं। लेकिन कुछ इस इतना महत्त्व नहीं देते।"

लार्ड रॉबर्ट्सन, जो क्रान्ति के समय मौजूद थे, ने लिखा है, "फोरेस्ट ने भारत सरकार के कागजों की हाल में जाँच की है, उस जांच से सिद्ध होता है कि कारतूसों के तैयार करने में जिस चिकने मसाले का उपयोग किया गया था, वह वास्तव में दोनों पदार्थों अर्थात् गाय की चरबी और सूअर की चरबी को मिलाकर बनाया जाता था और इन कारतूसों के बनाने में सिपाहियों के धार्मिक भावों की ओर इतनी बेपरवाही दिखायी जाती थी कि जिसका विश्वास नहीं होता।"

इन चर्बी लगे कारतूसों ने विद्रोह को भड़का दिया। प्रो. ताराचन्द ने लिखा है, "इस प्रकार बारूद तैयार थी, सिर्फ़ चिनगारी की देरी थी। " डॉ. आर. सी. मजूमदार ने लिखा है, च्कोई भी समझदार व्यक्ति यह देख सकता था कि सुरंग तैयार थी और गाड़ी भी तैयार थी तथा कोई भी भावना बहुत सरलता से उसमें चिनगारी लगा सकती थी। चर्बी लगे कारतूसों की कहानी ने वह चिनगारी सुलगा दी और उससे जो धमाका हुआ, उसने भारत में ब्रितानी राज्य की जड़ें हिला दीं।" जस्टिन मैकार्बी ने लिखा है, "सच तो यह है कि हिंदुस्तान के उतरी और उत्तर पश्चिमी प्रांतों के अधिकांश भाग में यह देशी जनता की ब्रितानी सत्ता के विरुद्ध बग़ावत (विद्रोह) थी।...चरबी के कारतूसों का मामला केवल इस तरह की एक चिनगारी थी जो अकस्मात् इस सारे विस्फोटक मसाल में आ पड़ी....वह युद्ध एक राष्ट्रीय और धार्मिक युद्ध था।" इतिहासकार मैडले ने लिखा है, "किन्तु वास्तव में जमीन के नीचे ही नीचे जो विस्फोटेक मसाला अनेक कारणों से बहुत दिन में तैयार हो रहा था, उस पर चर्बी लगे कारतूसों ने दियासलाई का काम किया।"

डॉ. सुभाष कश्यप ने इस सम्बन्ध में लिखा है, "वस्तुतः यदि कोई सबसे बड़ा कारण खोजा जाए, तो वह विदेशी शासन और भारतीयों की दासता की स्थिति ही था। विद्रोह के कारणों की खोज असल में ब्रितानी इतिहासकारों और राजनीतिज्ञों के साम्राज्यवादी दृष्टिकोण की उपज है। किसी भी पराधीन देश के लिए स्वयं पराधीनता ही विद्रोह का पर्याप्त कारण होती है, किन्तु ब्रितानी शासन को यह समझते थे कि ईश्वर ने उन्हें भारतीयों को सभ्य बनाने और अश्वेत जातियों पर शासन करने के लिए विशेष रूप से भेजा है। उस समय ब्रितानी यह सोच भी नहीं सकते थे कि भारतीयों की स्वाधीनता का अधिकार है अथवा कभी उनके सामने भारत भूमि को भारतीयों के ही हाथों में छोड़कर जाने की नौबत आ सकती है, अतः 1857 के विद्रोह से उन्हें आश्चर्य होना स्वाभाविक था। उन्होंने विद्रोह का कठोरतापूर्वक दमन करने के साथ-साथ उसके कारण खोजने और उन्हें दूर करने का प्रयास भी किया, इस आशय से और इस विश्वास से कि फिर कभी ऐसी विकट परिस्थिति पैदा न हो, जिससे भारत में ब्रितानी सत्ता को किसी चुनौती का सामना करना पड़ा।"

1 जनवरी, 1857 भारत में इस राइफ़ल का प्रयोग आरंभ हुआ। इसके बाद जब दमदम शस्त्रागार में कार्यरत एक निम्न जाति के खलासी को एक ब्राह्मण सैनिक ने अपने लोटे से पानी नहीं पीने दिया, तो खलासी ने उस पर व्यंग करते हुए कहा कि तुम्हारा धर्म तो नए सुअर एवं गाय की चर्बी मिश्रित कारतूसों का प्रयोग करने से भ्रष्ट हो जाएगा। इससे सत्य प्रकट हो गया। अतः सैनिक उत्तेजित हो गए। 23 जनवरी, 1857 ई. को कलकत्ता के समीप बैरकपुर छावनी में सैनिकों द्वारा इन कारतुसों का प्रयोग करने से इन्कार करने पर उन्हें दंड दिया गया। 29 मार्च, 1857 ई. को एक ब्राह्मण सैनिक मंगल पाण्डे ने अपने कुछ साथियों की मदद से कुछ ब्रितानी सैनिकों को मार डाला। अतः मंगल पाण्डे तथा उनके साथियों को मृत्यु दंड दिया गया। 21 मई, 1857 ई. को अवध रेजिमेंट द्वारा इन कारतूसों का प्रयोग करने से इन्कार करने पर उसे भंग कर दिया गया।

इसके बाद यह आग मेरठ में फैली। 24 अप्रैल, 1857 ई. को मेरठ छावनी के घुड़सवार सैनिक दल के 85 सैनिकों ने इन कारतूसों का प्रयोग करने से मना कर दिया। अतः उन्हें 5 वर्ष की कैद दे दी गई। 10 मई, 1857 ई. को मेरठ की तीसरी घुड़सवार सेना ने विद्रोह कर दिया एवं भारतीयों की पैदल सेना ने भी उनका साथ दिया। इन विद्रोही सैनिकों ने जेल में बन्द सैनिकों को छुड़ा लिया। इसके बाद विद्रोहियों ने दिल्ली की तरफ कूच किया। ब्रितानी इतिहासकारों का मत है कि मेरठ की स्त्रियों ने सिपाहियों में जोश भरकर उनका कल्याण नहीं किया था। मेरठ के सिपाही निश्चित तिथि 31 मई के पहले क्रान्ति न की होती तो परिणाम कुछ दूसरा ही होता।

इस सम्बन्ध में मालसेन ने लिखा है कि "यदि पूर्व निश्चय के अनुसार एक तारीख को ही सारे भारत में स्वाधीनता का संग्राम शुरू हुआ होता तो भारत में एक भी ब्रितानी जीविन न बचता और भारत में ब्रितानी राज्य का अन्त हो गया होता।"

मि. जे. सी. विलसन ने लिखा है कि "वास्तव में मेरठ की स्त्रियों ने वहाँ के सिपाहियों को समय से पहले भड़का कर ब्रितानी राज्य को भारत में नष्ट होने से बचा लिया।"

ब्रितानी लेखक यह मानते है कि "मेरठ का विद्रोह कम्पनी के लिए हितकर और भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के लिए घातक था।"

"मेरठ में ब्रितानी अफसरों को मौत के घाट उतारने अथवा खदेड़ने के बाद भारतीय सेनाओं तथा नागरिकों की भड़ी दिल्ली की ओर बढ़ी। दो ही दिन के अन्दर दिल्ली पर स्वाधीन-सैनिकों का कब्जा हो गया। मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को एक बार फिर सारे भारत का बादशाह घोषित किया गया।"

"शीघ्र ही दिल्ली विजय का समाचार देश भर में फैल गया। मई का अंत होते-होते अलीगढ़, इटावा, मैनपुरी, रूहेलखण्ड, मेरठ और दिल्ली आदि लगभग संपूर्ण भारत में विद्रोह चारों और फैल गया और इन सब क्षेत्रों ने विदेशी शासन से अपनी स्वाधीनता का ऐलान कर दिया। ब्रितानियों ने देशवासियों में आपस में धर्म आदि के आधार पर मतभेद पैदा करके एक-दूसरे को लड़ाने के प्रयास किए। प्रायः ये प्रयत्न असफल रहे, किंतु ब्रितानी सिक्खों के तथा पंजाब, राजपूताना, पटियाला, ग्वालियर, ज़िंद, हैदराबाद आदि के अनेक नरेशों को अपनी ओर करने, उनकी सहायता से भारतीयों की एकता भंग करने ओर विद्रोह दबाने में सफल हो गए। दिल्ली का घेरा महीनों तक चला। अंत में दिल्ली में रसद की कमी, ब्रिटिश साम्राज्य की अतुल शक्ति तथा ब्रितानियों की घूसख़ोरी और कुशल गुप्तचर व्यवस्था के कारण भारतीय सेनाओं को हार माननी पड़ी। मई और सितम्बर, 1857 के बीच लगभग 4-6 महीने तक दिल्ली में ब्रितानी शासन का नाम न रहा, दिल्ली स्वाधीन रही, राजधानी पर भारतीयों का शासन रहा।

24 सितम्बर को सिक्ख सेना की सहायता से ब्रितानियों ने फिर दिल्ली में प्रवेश किया और बादशाह बहादुरशाह को गिरफ्तार कर लिया गया। बादशाह के दो लड़कों को नंगा करके गोली मार दी गई तथा उनके सिर काटकर बादशाह के पास भेंट के रूप में प्रस्तुत किए गए। दिल्ली में भीषण नरसंहार किया गया। ब्रितानी सैनिकों ने जनता पर अमानुषिक अत्याचार किए। उन्हें सरकारी तौर पर एक सप्ताह तक खुलेआम लूट-मार करने की पूरी छूट दे दी गई। कहते है कि इस लूट-मार और नरसंहार के सामने लोग तैमूर और नादिरशाह को भी भूल गए। सैकड़ों कैदियों और असंख्य नर-नारियों तथा बच्चों को मौत के घाट उतार दिया गया। उत्तरी भारत के गाँव के गाँव मशीनगनों से उड़ा दिए गए।"

"1857 के स्वाधीनता संघर्ष का मुख्य केंद्र उत्तरी भारत ही रहा। देहली, कानपुर, बाँदा, बरेली, झाँसी, लखनऊ आदि में क्रांतिकारियों ने स्वतंत्र सरकार की स्थापना की। आधुनिक हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार आदि में विद्रोह के प्रमुख कर्णधार थे- राजा तुलाराम, तात्या टोपे, नाना साहब पेशवा, मौलवी अहमदशाह, बेग़म हज़रत महल, रानी झाँसी, राजा कुंवरसिंह, अमर सिंह आदि। 20 वर्षीया झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई वीरता पूर्वक ब्रितानी फ़ौजों से लड़ते-लड़ते शहीद हो गई। तात्या टोपे को उनके साथी ने धोखा देकर पकड़वा दिया। नाना साहब, बेग़म हज़रत महल, अमर सिंह आदि काफ़ी दिनों तक जूझते रहे। अंत में नेपाल की ओर चले गए। इस प्रकार एक-एक करके प्रथम स्वाधीनता संग्राम के सभी नेताओं का पतन हो गया

 

 

क्रांति १८५७

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